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भोला पंडित "प्रणयी" जी के गीत-खण्ड ' खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर'

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  भोला पंडित "प्रणयी" खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर (गीत-खण्ड) 1. चलते-चलते कहाँ आ गए भूख नहीं मिट पाई अब तक, खुशी और गम के झुले पर डोल रहे पलने पर अबतक। बना नहीं इतिहास मुकम्मल आ पहुँचे जाने किस तल पर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 2 सदा फलक पर जलती आग बाँध न पाए सिर पर पाग खाक छानते उमर गुजारे मिटे नहीं बंधन के दाग। बादल गरज-बरस सहलाए खड़ा हुए न सँभल सँभल कर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 3 हम हैं मोम, नहीं हैं पाथर शिखा हमारी जलती बाती सदा अँधेरा दूर भगाने हवा हमें सहज उकसाती जले हैं कितने कीट-पतंगे स्नेहाकर्षण में उछल-उछल कर। 4 सदा उजड़कर बसने का क्रम हर जाने वाले को है भ्रम आदि-अंत न सीमा-रेखा व्यर्थ गया जीवन भर का श्रम। साँस की डोरी विरल हो गई क्या पाये, जीवन भर चलकर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 5. फिक्र किसे इस माटी तन का जपे सदा घन-अर्जन-मनका सपने कभी साकार हुए ना टूटा रिश्ता अपनेपन का। मैली चादर बदल न पाई व्यर्थ गया यह जीवन पलकर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर।                 ▪️▪️▪️▪️▪️ ▪️▪️▪️▪️▪️ इस ब्लॉग की रचनाये स्वयं लेखकों के द्वारा दी गई है तथा इन रचनाओं का स्वताधिकार उनके पास

सुबोध कुमार "सुधाकर" जी की रचना मुझको कोई बुला रहा है।

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   सुबोध कुमार "सुधाकर" हे प्रिय! विश्वास कर लो। (खोल तरी पतवार) जो हुवा सब भूल जाओ, प्यार की बातें सुनाओ, भूल यह मुझसे हुई है, लो, इसे स्वीकार कर लो।                                 हे प्रिय! विश्वास कर लो। यह न कोई छल समझ तुम विवस जीवन-पल समझ तुम,             यह न कोई हार तेरी, जीत यह स्वीकार कर लो ।                                              हे प्रिय! विश्वास कर लो। अब न कोई शपथ खाओ, व्यर्थ आसू मत बहाओ, शेष जीवन के लिए तुम, फिर नया श्रृंगार कर लो।                                    हे प्रिय! विश्वास कर लो।                              .................... मुझको कोई बुला रहा है। (बीन के तार) रश्मि-करों से जगा कर,       मधुर कंठ से भुला रहा है।           मुझको कोई बुला रहा है।। वीणा रह-रह बजती मन की,       मधुर पिपासा प्रेम-मिलन की,           विटप-डाल पर बैठ विहंगम                जड़ चेतन को सुला रहा है।                   मुझको कोई बुला रहा है।। चमचम चमके नभ में चंदा,       छम-छम छमके भू पर क्षणदा,           आज सुधाकर मुक्त करों से                सुधा सृष्टि को पिला रहा है