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भोला पंडित "प्रणयी" जी के गीत-खण्ड ' खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर'

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  भोला पंडित "प्रणयी" खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर (गीत-खण्ड) 1. चलते-चलते कहाँ आ गए भूख नहीं मिट पाई अब तक, खुशी और गम के झुले पर डोल रहे पलने पर अबतक। बना नहीं इतिहास मुकम्मल आ पहुँचे जाने किस तल पर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 2 सदा फलक पर जलती आग बाँध न पाए सिर पर पाग खाक छानते उमर गुजारे मिटे नहीं बंधन के दाग। बादल गरज-बरस सहलाए खड़ा हुए न सँभल सँभल कर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 3 हम हैं मोम, नहीं हैं पाथर शिखा हमारी जलती बाती सदा अँधेरा दूर भगाने हवा हमें सहज उकसाती जले हैं कितने कीट-पतंगे स्नेहाकर्षण में उछल-उछल कर। 4 सदा उजड़कर बसने का क्रम हर जाने वाले को है भ्रम आदि-अंत न सीमा-रेखा व्यर्थ गया जीवन भर का श्रम। साँस की डोरी विरल हो गई क्या पाये, जीवन भर चलकर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 5. फिक्र किसे इस माटी तन का जपे सदा घन-अर्जन-मनका सपने कभी साकार हुए ना टूटा रिश्ता अपनेपन का। मैली चादर बदल न पाई व्यर्थ गया यह जीवन पलकर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर।                 ▪️▪️▪️▪️▪️ ▪️▪️▪️▪️▪️ इस ब्लॉग की रचनाये स्वयं लेखकों के द्वारा दी गई है तथा इन रचनाओं का स्वताधिकार उनके पास