शंभुनाथ अरूनाभ (कवि और लेखक) की कविता विचलन
शंभुनाथ अरूनाभ (कवि और लेखक) विचलन आत्मा के सरोवर से निकलकर हृदय के पौधशाला में अंकुरित हुआ मैं मस्तिष्क अभिभावक की देख लेख में मुझे होना था जवान कद्दावर बृक्ष की तरह सुनियोजित षड्यंत्र के द्वारा मेरे अभिभावक को नशेड़ी बना दिया गया मेरे जवान होने से पहले ही मेरे नशेड़ी अभिभावक ने मुझे भेज दिया उस ओर जहाँ नागफनी के जंगल थे और मुझे गुजरना था नंगे पाँव नागफनी के जंगल से गुजरते हुए मेरा नागफनी में तब्दील हो जाना तय ही था और एक दिन मैं नागफनी हो गया मेरे गिर्द फैलती सी गई संवेदनहीन मरुभूमि अछोर जहाँ अंध प्रतियोगिता का भयावह विस्तार था सफलता-असफलता की रेत धूर्त्तता की ढूहें और इर्ष्या की कँटीली झाड़ियाँ प्रेम और निश्छलता का जलाशयय नहीं था दूर-दूर तक यदि मैं होपाता हरा भरा कद्दावर बृक्ष तो अपनी सबसे खूबसूरत टहनी पर फूल ही नहीं खिलाता नुकील-पैने काँटे भी उगाता हवाओं के संग हरियाली का झूला ही नहीं झूलता हरियाली नोचने वाले हाथों को भी बिंधता कुलांचे भर रही खुशहाली का अंजन ही नहीं करता सात समंदर पार से आये आखेटक की आँख भी फोड़ता पुरवैया से सिर्फ सुगंध ही बरामद नहीं करता पछिय