ध्रुव नारायण सिंह राई जी की रचना मेरी बाल सखी
घ्रुव नारायण सिंह राई ग़ज़ल चाहे रात जितनी भी हो, हो जाने दो आज़ बात जितनी भी हो , हो जाने दो दरमियाँ फ़ासिला मिट जाये, अच्छा नजदीकी जितनी भी हो , हो जाने दो बेलोस तुम, पर बेबाक हो जाओ बेबाकी जितनी भी हो , हो जाने दो कयूँ पशेमाँ होती हो मेरी हमराज़ मोहब्बत जितनी भी हो, हो जाने दो बेजान बेलज़्ज़त बोसा भी क्या बोसा यूँ लज़्ज़त जितनी हो, हो जाने दो जीने के कई बहाने हैं जानेजानाँ मुलाकात जीतनी भी हो, हो जाने दो भूल जाएँ सुरूर में कि हम क्या हैं दीवानगी जितनी भी हो, हो जाने दो शम्मा देखती है शबीना वाक़िआत दिल्लगी जितनी भी हो, हो जाने दो हम हों शुमार नादानों की सफ़ में हाँ, तिश्नगी जितनी भी हो, हो जाने दो मेरी बाल सखी (चीलौनी नदी) ऐ मेरी बाल सखी चीलौनी ! मैं हो गया बूढ़ा, तुम बूढ़ी मेरी चमड़ी सिकुड़ गयी, तेरी चौड़ाई मेरी कुछ झुक गयी कमर, तेरी कम गयी गहराई मुर्झाया मेरा चेहरा, तुम क्षीण रहती सालों भर पके आम बन रहे हम दोनों फिर भी गिरने की नहीं फ़िकर जो करना था कर रहा अभी तक तुम भी करती आयी हो मैं कहलाता बाबा सबका, तुम चिलौनी माई हो जन-जन का भला ज़रूर