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जन लेखक संघ के महासचिव महेन्द्र नारायण पंकज जी के प्रबंधकाव्य की कुछ पंक्तियाँ

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डॉ. महेन्द्र नारायण पंकज महासचिव, जन लेखक संघ युवा वर्ग ही नये राष्ट्र का, बन पाता निर्माता है। जब-जब देश होता है दुर्बल, वह नूतन शक्ति जगाता है।। त्यागी, स्वार्थ रहित मानव जब जनहित में कुछ करता है। इसमें क्या सन्देह वही, जनगण में नवबल भरता है।।                                                                                                                                                    डॉ. महेन्द्र नारायण पंकज   इस ब्लाग की रचनाये स्वयं लेखकों के द्वारा दी गई है तथा इन रचनाओं का स्वताधिकार उनके पास है। धन्यवाद। संक्षिप्त परिचय जन्म- थाना-कुमारखण्ड, जिला- मधेपुरा (बिहार) शिक्षा- एम. ए, ग्राम- भतनी, बी. टी. साहित्याचार्य उपाधियाँ – ‘शिक्षा-श्री’ अखिल भारतीय शिक्षा साहित्य कला विकास समिति, बहराइच (उत्तर प्रदेश), आचार्य पानीपत साहित्य अकादमी, पानीपत (हरियाणा)। सम्मान- ‘कला सम्मान’ (प्रगतिशील लेखक संध, पूर्णियाँ), ‘डा. अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान’ (भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली 1996 ई.), ‘राष्ट्रीय हिन्दी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान’ (विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर नई दिल्ली में 2000 ई.)

गोपाल सिंह 'नेपाली' के काव्य में राष्ट्रीय चेतना - नवल भास्कर

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         नवल भास्कर         शोधार्थी , हिंदी विभाग   भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय  लालू नगर मधेपुरा गोपाल सिंह 'नेपाली' के काव्य में राष्ट्रीय चेतना ।            गीतों के राजकुमार , प्रकृति प्रेमी कवि गोपाल सिंह ’नेपाली’ के हृदय में राष्ट्रभक्ति , राष्ट्रप्रेम और चेतना दिलो-दिमाग में इस तरह बस गया था कि वह अपनी रचना में सभ्यता संस्कृति , शासन , संप्रभुता  और जनजागृति के साथ युगबोध का अंगूठा छाप हम सभी के बीच छोड़ गए । उनकी राष्ट्रीय चेतना में देश के प्रति गहरा भाव झलकता है । जिस तरह से साहित्य हमारे समाज को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए अपनी अहम भूमिका निभाते हैं उसी के सापेक्ष हर दृष्टिकोण से नेपाली जी की अधिकांश रचना समाज को नई गति प्रदान करता है ।       वह सच्चे अर्थों में भारत माता के ऐसे सपूत थे जिन्होंने सेवा फल का ना तो स्वाद चखे ना ही मन में कभी इच्छा हुई । केवल समस्त जनमानस के पटल पर राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के लिए हमेशा नि:स्वार्थ , नि:संकोच अपनी रचना राष्ट्र हित के लिए गढ़ते गए । राष्ट्रीयता से ओत_ प्रोत रचना देशगाण अभी भी कहीं गाया जाता है तो सुनकर रोम-रोम पु

प्रतिभा कुमारी जी की गजलें

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  प्रतिभा कुमारी त्रिवेणीगंज, सुपौल गजल ये फासले क्या कभी कम ना होंगे मैं और तुम क्या कभी हम ना होंगे दर्दे जिगर जो हद से बढ़े भी तो, नैना हमारे कभी नम ना होंगे। बचपन से सीखा हमने गणित में.. सम ओ विषम मिल कभी सम ना होंगे। भले टूट जाएं अपनों को फिर भी, अपनी वजह से कभी गम ना होंगे। देती है पीड़ा अपने ही हमको, गैर में इतना कभी दम ना होंगे। दीप उर्मिला का बन हम जलें ती.. पथ में लखन के कभी तम ना होंगे। भुलाने को हम पिए जा रहे पर, खारे आंसू कभी रम ना होंगे। गजल कोई गम नहीं है उस बात की। तकाजा रही होगी हालात की। जिंदा है जख्म उल्फत के अब तक, मरहम नहीं है उर आधात की। गरज परस्त दुनिया में यह जान ले, कीमत नहीं कोई जज्बात की। संभाली थी अब तक आंखें जिसे, बरस ही गई आज बिन बात की। रचबस गई मेरे सांसों में जो, कस्तूरी महक वह हंसी रात की। भले भूल जाओ प्रतिभा को मगर.. कसक तो रहेगी उन लम्हात की। एक कप चाय संवेदनाओं की आँच पर जब दूध-सा भावनाएँ उफनती है तेरी यादों की तासीर जब उसमें पत्ती-सी मिलती है बड़े शिदत्त से प्रीत तब शक्कर-सी घुलती है कतरे कतरे इश्क को निगाहें छान लेती है तब कहीं जाके तेरे सामने एक क

भोला पंडित "प्रणयी" जी के गीत-खण्ड ' खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर'

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  भोला पंडित "प्रणयी" खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर (गीत-खण्ड) 1. चलते-चलते कहाँ आ गए भूख नहीं मिट पाई अब तक, खुशी और गम के झुले पर डोल रहे पलने पर अबतक। बना नहीं इतिहास मुकम्मल आ पहुँचे जाने किस तल पर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 2 सदा फलक पर जलती आग बाँध न पाए सिर पर पाग खाक छानते उमर गुजारे मिटे नहीं बंधन के दाग। बादल गरज-बरस सहलाए खड़ा हुए न सँभल सँभल कर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 3 हम हैं मोम, नहीं हैं पाथर शिखा हमारी जलती बाती सदा अँधेरा दूर भगाने हवा हमें सहज उकसाती जले हैं कितने कीट-पतंगे स्नेहाकर्षण में उछल-उछल कर। 4 सदा उजड़कर बसने का क्रम हर जाने वाले को है भ्रम आदि-अंत न सीमा-रेखा व्यर्थ गया जीवन भर का श्रम। साँस की डोरी विरल हो गई क्या पाये, जीवन भर चलकर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर। 5. फिक्र किसे इस माटी तन का जपे सदा घन-अर्जन-मनका सपने कभी साकार हुए ना टूटा रिश्ता अपनेपन का। मैली चादर बदल न पाई व्यर्थ गया यह जीवन पलकर खर्च हुए हैं पिघल-पिघल कर।                 ▪️▪️▪️▪️▪️ ▪️▪️▪️▪️▪️ इस ब्लॉग की रचनाये स्वयं लेखकों के द्वारा दी गई है तथा इन रचनाओं का स्वताधिकार उनके पास

सुबोध कुमार "सुधाकर" जी की रचना मुझको कोई बुला रहा है।

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   सुबोध कुमार "सुधाकर" हे प्रिय! विश्वास कर लो। (खोल तरी पतवार) जो हुवा सब भूल जाओ, प्यार की बातें सुनाओ, भूल यह मुझसे हुई है, लो, इसे स्वीकार कर लो।                                 हे प्रिय! विश्वास कर लो। यह न कोई छल समझ तुम विवस जीवन-पल समझ तुम,             यह न कोई हार तेरी, जीत यह स्वीकार कर लो ।                                              हे प्रिय! विश्वास कर लो। अब न कोई शपथ खाओ, व्यर्थ आसू मत बहाओ, शेष जीवन के लिए तुम, फिर नया श्रृंगार कर लो।                                    हे प्रिय! विश्वास कर लो।                              .................... मुझको कोई बुला रहा है। (बीन के तार) रश्मि-करों से जगा कर,       मधुर कंठ से भुला रहा है।           मुझको कोई बुला रहा है।। वीणा रह-रह बजती मन की,       मधुर पिपासा प्रेम-मिलन की,           विटप-डाल पर बैठ विहंगम                जड़ चेतन को सुला रहा है।                   मुझको कोई बुला रहा है।। चमचम चमके नभ में चंदा,       छम-छम छमके भू पर क्षणदा,           आज सुधाकर मुक्त करों से                सुधा सृष्टि को पिला रहा है

सियाराम यादव मयंक जी की गजल

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  सियाराम यादव मयंक गजल -01 जिन्दगी  का  मजा लीजिए। हर किसी से दुआ लीजिए।। रुक गया  राह  में जो कहीं।  बोझ उसका उठा लीजिए।। तीरगी   है   भरी   राह   में। दीप अपना जला लीजिए।। मिल गया  गर कहीं आइना। दाग  दामन  छुपा लीजिए।। भर  रहा  रंज से  मन जभी।  कुछ घड़ी गुनगुना लीजिए।। जो  कहीं  खा   रहे   ठोकरें।   पास उसको बुला लीजिए।। होंठ हॅंसता नहीं अब मयंक। कुछ पहर मुस्कुरा लीजिए।।                  --०-- गजल -02 एक  तारा  टिमटिमाता   जल  रहा  है  आजतक। अनवरत  वह  तारीकों  से लड़ रहा है आजतक।। साथ  मिलकर  जो समन्दर से निकाला था सुधा। घूॅंट  पीने  के लिए  दर-दर  भटकता  आजतक।। मांग  अंगूठा  लिया सिर को किया धड़ से अलग। उस  कहानी की हकीकत कह रहा है आजतक।। जो  यहाॅं  आया  कभी  था  पेट भरने  के  लिए। दूसरों की  रोटियों  पर  पल  रहा  है आजतक।। जो समय के  पंख  से  उड़ना नहीं सीखा कभी। इस जहां में हाथ अपना मल रहा है आजतक।। खुल गया है  राज फिर भी  चाॅंद मामा  हैं  बने। एक तोता की तरह बस रट  रहा है आजतक।। आ  गया  विज्ञान  युग  भगवान हैं बनते मयंक। आदमी ही आदमी को  गड़  रहा है आजतक।।                      

Bharat Prasad 'Bhushan' poetry An Old Man

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  Bharat Prasad 'Bhushan' Ex. Head of the Department English L. N. Science College, Triveniganj,   Supaul (Bihar) Meet the author Bharat Prasad "Bhushan" and his poem with this blog post. By the way these poems are in series and five part. Here I am presenting only two, one is first and other is last part of poem of the series so as otherwise this post will not to be much lenghthy. In the future post I will post the other part of this poem to complete the poem series.                       "A Tireless Traveller" is the upcoming book of Bharat Prasad "Bhushan" centers around the life story and struggles of the author himself it is purely based on experiences of life that he has gathered passing through the ordeals. Nothing Such as imaginary has been introduced in it. It depicts a true picture of the journey of life.  Poems by  Bharat Prasad 'Bhushan' An Old Man An old man's nothing but clown, Hope destroyed like a bereaved fawn, In freez