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Showing posts from 2023

प्रेम की पीड़ा से भरपूर एक काव्यकृति “कुछ तेरी कुछ मेरी बात” (पुस्तक समीक्षा) -डा. धर्मचन्द्र विद्यालंकार

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  🔗 कुछ तेरी कुछ मेरी बात डॉ. अलका वर्मा (पुस्तक-समीक्षा) प्रेम की पीड़ा से भरपूर एक काव्यकृति “कुछ तेरी कुछ मेरी बात” डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार कविता ही मानव मन की भावाभिव्यक्ति की प्रथम साधन है। सारे राग-विराग और घात-प्रतिघात उसी के माध्यम से व्यंजित होते रहते हैं मानव जीवन के । आप भी वही आपबीती के माध्यम से जगबीती का सशक्त साधन है। ‘कुछ तेरी कुछ मेरी बात’ नामक एक काव्यकृति हाल ही में हमारी नजरों से गुजरी है। जिसकी जो रचयिता कवयित्री है वे हैं डा. अलका वर्मा, बिहार की ऋतुपरिवर्तन का प्रबल प्रभाव आखिर कवि मानस पर होता ही है। शारदीय पूर्णिमा के आगमन की अगवानी वे इसी रुप में करती हैं- “प्रकृति ने किया श्रृंगार बहाकर बासन्ती क्यार। सुरभित है आंगन-द्वार मैया आने वाली है।” माँ की ममता के महत्व को भी यह कवयित्री बखूबी समझती है। उसकी ममता का कोई मूल्य कहाँ है। माँ के प्रति सहज समर्पण को ही वे सबसे बढ़कर भक्ति और पूजा मानती है- “करते हो माँ का तिरस्कार, सारे जप-तप तीर्थ बेकार। उनके चरणों में दुनिया है पड़ी, माँ का आँचल जादू की छड़ी।” अब ग्रामीण प्राकृतिक परिवेश में जो बड़े-बड़े बदलाव शहरीकर

सुरेन्द्र भारती जी की कविताएं

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  सुरेन्द्र भारती विमल भारती भवन त्रिवेणीगंज, जिला- सुपौल, बिहार मो.  78580 76014 गाँधी जयन्ती पर अटल विश्वास के कर्म चन्द सत्य-अहिंसा के पुजारी संकल्प, संघर्ष के राष्ट्रपिता, हो गई कहाँ दफन, लड़ाई समता की तुम्हारी। हिंसा-प्रतिहिंसा का बहशी बयार और साम्प्रदायिकता का जहर देश को खोखला बना डाला और तुम बुत बने किसी चौराहे या शहर के गोलम्बर पर खड़े-खड़े सत्रेण नेत्रों से देख रहे होते अत्याचार, व्यभिचार। एकता को अनेकता की आँधीने खंडित, कर दिया और देश दो भागों में बँट गया। कर विधान भंग वे पद की लोलुपता में नित्य नये गठबंधन का हठजोड़ करते हैं हो चुनाव साल में दो-दो बार ऐसा शोर करते हैं आतंक की बारुदी सुरंग में देशवाशी झोंक दिये जाते हैं। ...................... मंडल विचार से प्रकाशित। आजादी के बर्षों बाद आजादी के बर्षों बाद,हमने क्या पाया क्या खोया? लुट गयी जनता जनार्दन, शहीदों का सपना टूट गया। देख दुर्दशा रोती रह गई भारत माता, अपने ही वतन में, कवल आजादी देशभक्त इंशान, हैवान बन गया। दिए खुत्वे हिन्दू मंदिरों में व मुसलमां मस्जिदों में, हुई मसमंद बटवारे की होड़ में, देश खंडित हो गया। शहीदों ने द

डॉ. विश्वनाथ सराफ - कोशी के रेत पर बोयी जाती कविता

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  डॉ. विश्वनाथ सराफ त्रिवेणीगंज, सुपौल बिहार मो. नं. - 94314506 एक परिचय- पेशे से चिकित्सक डॉ. विश्वनाथ सराफ यों तो मरीजों की नाड़ियाँ देखते हैं और दवा देते हैं लेकिन जब माइक पकड़ते हैं तो अपनी कविताओं से व्यंग एवं हास्य का श्रोताओं को मरहम भी लगाते हैं। अच्छे वक्ता, मंच संचालक के साथ ही इनकी राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बराबर भागीदारी रहती है, ये जिला एथेलेटिक्स एसोसियन के अध्यक्ष भी है। आपकी रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती है। प्रस्तुत है आपकी कोसी पर एक रचना कोशी के रेत पर बोयी जाती कविता   ये कोशी है  यहाँ रेत पर  बोयी जाती है कविता  जैसे समंदर के किनारे  रेत पर उकेरी जाती है  मूर्तियां  बोलती नहीं  पर आँखों से  सब कह जाती हैं  सागर की लहरों की चंचलता  बनते विगड़ते घरौंदे  मछुआरों का जीवन  गहराईयों में समाती रेत  सब समझा जाती है  मूर्तियाँ  ऐसी है कोशी की रेत पर  बोयी गयी कविता  सब कह जाती है  कोशी की चंचल धारा का क्रोध  अपने ही गाँव से  निर्वासित किसान  बाँध के किनारे झोपड़ी  धूप, पानी और जाड़े में ठिठुरते  घूरे की आग से  बदन ढ़कते बुढ़े बच्चे  धुल उड़ाती अ

Last Salutation (English Article) Dhruva Narayan Singh Rai

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  Dhruva Narayan Singh Rai LAST SALUTATION         T he day uncle breathed his last, aunt got paralysed. She even being old with bent waist had been attending him since long. At that time I was at Triveniganj some three miles away from the village. I was told about the unpleasant incident through a cell phone. At once I hurried to the village and saw uncle by myself lying motionless, body covered from face to feet with a piece of white cloth. I took up the cloth and saw him sleeping in everlasting slumber. His eyes were closed and face as usual as before as if showering blessings on me. In fact he didn’t seem like dead. It seemed he would open his eyes and begin to ask about how I am. But, alas! It was my mere imagination. How could such thing happen? I bowed and touched his feet for reverential salutation praying God for his peace in heaven. I touched his face lightly and covered it thereafter. Oh! I couldn’t weep at all. My eyes remained dry. Sorry uncle. I beg your pardon. How ungr

प्रतिभा कुमारी जी, गीत - शबनम से भींगी गुलाब क्यों है

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  प्रतिभा कुमारी   वरिष्ट कवियित्री एवं शिक्षिका स्वतंत्र लेखिका एवं स्तंभकार त्रिवेणीगंज, सुपौल,बिहार। गीत शबनम से भींगी गुलाब क्यों है रखी दिल पर खुली किताब क्यों है ये किन खयालों का है बादल अजी मौसम ए दिल खराब क्यों है। वो दौर कब का गुजर चुका है अभी तलक क्यों भुला न पाई क्यों उंगलियों को अब मरोड़े कि जिसको अब तक जता न पाई तेरे अधर पर रुकी हुई सी ये उनके खत का जवाब क्यों है ये किन खयालों का है बादल अजी मौसम ए दिल खराब क्यों है महक रही हो हरिचंदन जैसे इन सांसों में किसे गुन रही हो क्यों धड़कनों के जिरह में गुम हो इस मौन में किसे सुन रही हो  इन नयन पटों को खोल सखी री ये नलिन अक्षि पर हिजाब क्यों है ये किन खयालों का है बादल अजी मौसम ए दिल खराब क्यों है। ✍️ प्रस्तुत कविता की समीक्षा   हिन्दी कविता की सुपरिचित कवयित्री व शिक्षिका, अति पिछड़े अंचल सुपौल-बिहार की धरती से कविता की फसल उगाती, धैर्य की प्रतिमूर्ति आदरणीया बहन प्रतिभा कुमारी जी द्वारा रचित शीर्षक विहीन गीत कविता भाषा, भावप्रवणता और गेयता की दृष्टि से उच्च कोटि की रचना है।गीत सामान्यतया अपनी गेयता, शब्द शक्ति और उल्लास के लिए जा

डॉ. सुषमा दयाल जी की रचना “चौखट से चाँद तक”

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  डॉ. सुषमा दयाल वरीय शिक्षिका, एम एस कुशहा त्रिवेणीगंज सुपौल। एक पड़ी सबपे भारी हर लड़की ज्योति नही बनेगी पद पाते पति को ही छोड़ देगी। जरा शर्म करो ,जिसने तेरे साथ लिए थे सात फेरे परिजनों के सामने जिसने थामा तेरा हाथ आज तूने छोड़ दिया उसका ही साथ।। तुमने तो दिखा दी अपनी औकात औरतों को तुमने किया कलंकित बहुओं को आगे बढ़ने से किया प्रतिबंधित।। माफ नही करेगी तुम्हारी ही बेटियां, कितनी सुननी पड़ेगी उल्टी सीधी खड़ी खोटियां।। जरा तो सोच लेती भविष्य को पत्नी होने के अस्तित्व को।। शराबी पति को भी नारी ने व्रत त्योहार करके लोक लाज को ढोकर जीवन को संभाला है। तूने तो जीते जी आलोक के रहते मनीष जी के साथ प्रेम  करके अपने ही चरित्र का किया  घोटाला है।। कितनी बददुआ तुम्हे है,मिल रही कोई नही कह रहा तुम्हे सही। काम ही तुमने ऐसा किया है समाज में ज्योति फैलाने की जगह कीचड़ उछाला है।। सुख के दिन मै तुम्हे कोई और भा गया, खून पसीना एक कर  पति ने तुम्हे पढ़ाया,  इसी की सजा तूने उसे फूट फूट कर रुलवाया।। बहुत अरसों के बाद ही तो समाज में लोगों का नजरिया बदला था, बेटी बहुओं को एक  समान मौका मिला था। पढ़ने का आगे

डॉ. इन्दु कुमारी हिन्दी विभाग भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय की रचना साहित्यकोसी पर

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डॉ. इन्दु कुमारी    हिन्दी विभाग भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय  लालू नगर मधेपुरा बिहार शिक्षक की महिमा मैं शिक्षक हूं शिष्य बन सीखो लाली लाल। । मेरे उर में ज्ञान का है भंडार विशाल। । बच्चों अपने ध्यान का, विद्या अध्ययन काज।। सदा करो उपयोग तुम, विद्या विनय विराज।।  जीवन जीने की कला मैं नित रही सिखाएं।  सीखो मन उल्लास भर, समय फिसलता जाए। । जो भी बच्चे मानते ,है शिक्षक की बात।।  पढ़ने में वह ध्यान दे, तज सारे उत्पात।।  बच्चों के हित के लिए शिक्षक करते काम।। सदा चाहते शिष्य को मिले उचित परिणाम।। मात-पिता से कम नहीं शिक्षक का स्थान।। बच्चों को शिक्षक सदा देता उत्तम ज्ञान।। शिक्षक के प्रति हम रखें, मन आदर सम्मान।। शिक्षक ही संसार में, दे जीवन का ज्ञान।।   शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं एवं बधाई  चौठ चंद्र की पूजा चौठ चंद्र की पूजा सखी आज मनाओ रे , खीर पुरी और फल फूलों से थाल सजाओ रे। मिट्टी के बर्तन पहूंचाने कुम्हार भाई आते हैं,  दो दिन पहले से सब मिलकर दही जमाते हैं।  धो-धो कर कूट पीसकर आटा ले आओ रे, चौठ चंद्र की पूजा सखी आज मनाऊं रे। बच्चे उमंग में उछल कूद कर खुशी मनाते हैं, रंग-ब

ध्रुव नारायण सिंह राई जी की रचना मेरी बाल सखी

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  घ्रुव नारायण सिंह राई ग़ज़ल चाहे रात जितनी भी हो, हो जाने दो आज़ बात जितनी भी हो , हो जाने दो दरमियाँ फ़ासिला मिट जाये, अच्छा नजदीकी जितनी भी हो , हो जाने दो बेलोस तुम, पर बेबाक हो जाओ बेबाकी जितनी भी हो , हो जाने दो कयूँ पशेमाँ होती हो मेरी हमराज़ मोहब्बत जितनी भी हो, हो जाने दो बेजान बेलज़्ज़त बोसा भी क्या बोसा यूँ लज़्ज़त जितनी हो, हो जाने दो जीने के कई बहाने हैं जानेजानाँ  मुलाकात जीतनी भी हो, हो जाने दो भूल जाएँ सुरूर में कि हम क्या हैं दीवानगी जितनी भी हो, हो जाने दो शम्मा देखती है शबीना वाक़िआत दिल्लगी जितनी भी हो, हो जाने दो हम हों शुमार नादानों की सफ़ में हाँ, तिश्नगी जितनी भी हो, हो जाने दो                                 मेरी बाल सखी            (चीलौनी नदी) ऐ मेरी बाल सखी चीलौनी ! मैं हो गया बूढ़ा, तुम बूढ़ी मेरी चमड़ी सिकुड़ गयी, तेरी चौड़ाई मेरी कुछ झुक गयी कमर, तेरी कम गयी गहराई मुर्झाया मेरा चेहरा, तुम क्षीण रहती सालों भर पके आम बन रहे हम दोनों फिर भी गिरने की नहीं फ़िकर जो करना था कर रहा अभी तक तुम भी करती आयी हो मैं कहलाता बाबा सबका, तुम चिलौनी माई हो जन-जन का भला ज़रूर