प्रेम की पीड़ा से भरपूर एक काव्यकृति “कुछ तेरी कुछ मेरी बात” (पुस्तक समीक्षा) -डा. धर्मचन्द्र विद्यालंकार

 

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कुछ तेरी कुछ मेरी बात

डॉ. अलका वर्मा

(पुस्तक-समीक्षा)

प्रेम की पीड़ा से भरपूर एक काव्यकृति

“कुछ तेरी कुछ मेरी बात”

डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार


कविता ही मानव मन की भावाभिव्यक्ति की प्रथम साधन है। सारे राग-विराग और घात-प्रतिघात उसी के माध्यम से व्यंजित होते रहते हैं मानव जीवन के । आप भी वही आपबीती के माध्यम से जगबीती का सशक्त साधन है। ‘कुछ तेरी कुछ मेरी बात’ नामक एक काव्यकृति हाल ही में हमारी नजरों से गुजरी है। जिसकी जो रचयिता कवयित्री है वे हैं डा. अलका वर्मा, बिहार की ऋतुपरिवर्तन का प्रबल प्रभाव आखिर कवि मानस पर होता ही है। शारदीय पूर्णिमा के आगमन की अगवानी वे इसी रुप में करती हैं-

“प्रकृति ने किया श्रृंगार बहाकर बासन्ती क्यार।

सुरभित है आंगन-द्वार मैया आने वाली है।”

माँ की ममता के महत्व को भी यह कवयित्री बखूबी समझती है। उसकी ममता का कोई मूल्य कहाँ है। माँ के प्रति सहज समर्पण को ही वे सबसे बढ़कर भक्ति और पूजा मानती है-

“करते हो माँ का तिरस्कार, सारे जप-तप तीर्थ बेकार।

उनके चरणों में दुनिया है पड़ी, माँ का आँचल जादू की छड़ी।”

अब ग्रामीण प्राकृतिक परिवेश में जो बड़े-बड़े बदलाव शहरीकरण और आधुनिकता के कारण आये हैं-

“ना सुहानी शाम है, ना पीपल की छाँव है

कहाँ हमारा गाँव है, ना घुरा ना साँप है।

ना पर्व की चहल पहल ना भोज भात की बात है

अपनों से मिलने जाते नहीं मिलना कोई भाव है।”

हालाकि प्रस्तुत काव्यकृति की रचयिता स्वयं एक विधवा स्त्री हैं। अतएव सरस समृति-शूल कहीं न कहीं उनके मन को सालता ही है तभी तो वे पावस ऋतु में और भी अधिक विरह व्यथा से विदग्ध हो उठती हैं-

“पूनम की चाँदनी रात लगती है तीखी

विरह मुझे लागे है अगन सरीखी

मिलें सजन मैं करूँ कैसे जतन

फिर भी भीगा नहीं है ये मेरा मन? ”

यहाँ पर ग्राम गंधी लोक लहरी की माधुरी द्रष्टव्य है। आगे वे प्रेम पराग से पूरित होकर रहस्यवाद और छायावादक की भावभूमि में भी चली जाती है-

“साँसों में तुम , ख्यालों में तुम, मेरे महबूब सवालों में तुम,

चाँदनी में तुम, सितारों में तुम, मेरे सनम जवाबों में तुम,

फुलों में तुम, परागों में तुम, मेरे सनम खुश्बू में तुम, ”

 यहाँ पर उर्दू मिश्रित तद्भव शब्दावली में भी प्रेमपरकता है। जब वह कवयित्री वास्तविकता के धरातल पर आती है, तभी उसका विरही वैरागी मन स्मृति-शूल की कसक को प्रतिपल अनुभव करता है कि किस प्रकार से परिधान परिवेष्ठन और शैय्या शयन तक में दिवंगत प्रेमी पति का जो स्नेहिल सहकार सान्निध्य मिला था वह अब भी अविस्मरणीय है। वह स्वप्न समृति में भी उसके साथ मिलकर एककार है आती है। जैसाकि कभी कबीरदास ने कहा था-

“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि तो मैं नाहिँ।

प्रेम गली अति सांकरी, जामैं दो ना समाया।”

गीत-गोबिन्द की राधा भी तो अपने प्रियतम कृष्ण कन्हैया की स्मृति में अपनी सुध-बुध खोकर स्वयं को ही माधव मानने लगती है-

“कान्हा-कान्हा सुमरत, राधा भेल मधाई।”

प्रेम की पींगे भरकर भी डा. अलका वर्मा की प्रेयसी नारी इतनी निरीह नहीं है कि उसे आत्मबोध ही न रहे वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व के प्रति सतत रूपेण सजग है। तभी तो यह कवयित्री पुरुष समाज से भी पृथक् अपनी प्रखर पहचान के प्रतीकों की तलाश सिद्दत के साथ करती है कि उसके माथे पर सिंदूर और तन पर लाल जोड़ा पुरुष रुपी पति द्वारा प्रदत्त प्रतीक ही तो है। माथे की बिंदी से लेकर मंगल-सूत्र और पाँवों के नुपुर तक उसके सधवा और सुहागन होने की  ही प्रखर पहचान है। फिर आखिर उसकी अपनी स्वतंत्र पहचान इनसे इतर क्या है।

इस आधुनिकयुगीन नारी स्वातंत्र्य चेतना एवं युगबोध से भी सहज सम्पन्न होकर भी डा. अलका वर्मा का नारी मन आखिर राय रिक्त कहाँ है। तभी तो वे पावन प्रभात  एक बार पुनः रक्तत-रंजित होकर गुनगुना उठती हैं-

“फूलों ने धरा का श्रृंगार किया है,

मंद-मंद पवन शीतल तन किया है,

देखो भोर भई मन से चंचल हुई।”

क्या वैधव्य व्यथा से विवृति नारी मन राग-रंजित नहीं रहता है, वह फिर भी प्राकृतिक परिवेश परिवर्तन को अपने तन और मन में भी अनुभव करती ही है- यथा ‘वासन्ती मौसम’ नामक उनकी कविता की यो पंक्तियाँ यहाँ रक दर्शनीय हैं-

“दुल्हन बनी है धरती, हरपल हे यह तड़पती,

जब जब कोयल गाती है, तन मन में आग लगाती है।”

फाग के राग-रंग भी अलका वर्मा की नायिका को बहुत ही बैचेन करते हैं। होली का हुड़दंग भी उनके मन को भावविभोर कर देता है। वह भी राग-रंजित होकर फाग-राग और कजरी  गा उठती है और अपनी चोली और चुनरिया को रंगों  से भिगोकर भी अर्न्तमन से भी आनन्दित हो उठती है-

“गाओ गीत-आयेंगे गीत लेकर प्रीत होली आई रे।

लेकर पिचकारी, राधा दुलारी, खेलत मुरारी, होली आई रे।”

‘तेरे बिन गीत कैसे गाऊँ’ और ‘सावन आयो’ जैसी कविताओं में इस कवयित्री को अपने प्रियतम की सरस स्मृतियों और भी अधिक सधन हो उठी है-

“सब सखियों के साजन घर आये

मुझे पियाजी क्यों तरसाए।

हरिहर पतोर में कैसे ओढूँ।

तेरे बिन गीत कैसे गाऊँ।”

सावन की रातें तो विरहिन नायिकाओं के लिए वैसे ही काली नागिन की भाँति कष्टकारी होती है, तब मिलन के समय की सुखद स्मृतियाँ और भी अधिक उद्बुद्ध हो उठती हैं-

“दाद्वर झिंगुर शोर मचाया, विहग दल सुख से गाया,

झुला झुले  मेरी सखियाँ, कजरी गाओ सावन आया।”

यदि जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ नामक सकार्य काव्य के शब्दों में हम कहना चाहे तो यही कह सकते हैं-

“जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तिक में स्मृति –सी छाई।

दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई।”

डा. अलका वर्मा की मानीनि नायिका कई बार प्रियतम से मिलने से भी रूठकर इंकार कर देती है। वह निर्वात निष्कम्प दीप की भाँति विरहग्नि में अनवरत प्रदीप्त ही रहना चाहती है। यदि महादेवी वर्मा के शब्दों में कहें तो हम यही कह सकते हैं-

“शलभ! मैं शापमय वर हूँ,

किसी का दीप निष्ठुर हूँ।

मिलन का मत नाम लो

मैं विरह में चिर हूँ।”

अतएव प्रेम पीयूष पीकर उनकी मतवाली ओर मानिनी नायिका राग और विराग के ही मध्य में पैंडूलम की ही भाँति झूलती रहती है। इसीलिए डा. अलका वर्मा जी को उच्छल आत्माभिव्यक्ति है, वह वहाँ पर उनमुक्त भाव से ही अभिव्यक्ति हुई है।

स्त्रियों के साथ व्यभिचार और बलात्कार करने वाले पुरुषों के प्रति इस काव्यकृति की कवयित्री काफी कठोर है। उन्होंने यहाँ पर निर्भयता के दोषियों को दण्ड मिलने पर प्रर्याप्त प्रसन्नता व्यक्त की है। तो ‘हल्ला-बोल’ जैसी कविताओं में कहीं-कहीं पर राजनीतिक नारेबाजी वाली प्रचारपरक इतिवृत्तात्मक भी है। प्राकृतिक  प्रदूषण के प्रति भी यह कवयित्री काफी सजग और संवेदनील है, इसलिए वृक्षारोपण हेतु अपने पाठकों को वे अभिप्रेरित भी करती हैं।

अंधविश्वास युक्त आडम्बरों की भी वे घनघोर विरोधी हैं। परन्तु कहीं पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत करके वे भी साम्प्रदायिकता के प्रति सहिष्णु सहज प्रतीत होती हैं। भारतवर्ष  की जो गंगा-जमुनी सामासिक या साँझी संस्कृति है, सहृदय साहित्यकारों को उसकी स्थापना के लिए सतत प्रयत्नरत रहना चाहिए।

‘तेरी याद बहुत आई’ नामक इस संकलन की कविता में एक स्थान पर चलचित्र जैसी चलताऊ पदावली भी प्रयुक्त की गई है। यथा-

“मौसम ने ली अंगड़ाई

तेरी याद बहुत आई।”

लोकलय जैसी ऐ बहुप्रचलित उक्तियों से साहित्यकारों को बचना चाहिए। उनका रोमानीपन भी स्तरीय ही होना चहिए। धर्मबीर भारती की भाँती – ‘मेरी जिन्दगी बर्बाद तेरे इस फिरोजी होंठ पर’ नहीं होनी चाहिए। फिर भी अपनी ‘जबाब चाहिए’ नामक कविता में यह कवयित्री पुरुष वर्ग से नारी के सम्मान में क्या उनका अपना सम्मान अर्न्तनिहित नहीं है, यह प्रश्न पूछती है। इस काव्यकृति की ‘चीर-हरण’ और ‘इंसाफ’ जैसी कविताएँ अपनी मूल प्रकृति में क्रान्तिकारी ही हैं। अतएव आपबीती के ही माध्यम से जगबीती की की व्यथा-कथा यहाँ पर डा. अलका वर्मा ने अपनी इस काव्यकृति में अपने इस कविकर्म का उचित ही निर्वाह किया है। इसके लिए वे सदैव साधुवाद की ही सुपात्र रहेंगी। 

डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार

सेवानिवृत प्राध्यापकः हिन्दी विभाग

गो.ग. द. स. धर्म महाविद्यालय

पलवल, हरयाणा-121102

दूरभाष-9991816926


 

पुस्तक का नामः कुछ तेरी कुछ मेरी बात

कवयित्री का नामः डॉ. अलका वर्मा

पताःत्रिवेणीगंज,सुपौल, बिहार

प्रकाशनः हमरूह पब्लिकेशन

पृष्ठ संख्या- एक सौ मात्र



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