सुरेन्द्र भारती जी की कविताएं
सुरेन्द्र भारती विमल भारती भवन त्रिवेणीगंज, जिला- सुपौल, बिहार मो. 78580 76014 |
गाँधी जयन्ती पर
अटल विश्वास के कर्म चन्द
सत्य-अहिंसा के पुजारी
संकल्प, संघर्ष के राष्ट्रपिता,
हो गई कहाँ दफन,
लड़ाई समता की तुम्हारी।
हिंसा-प्रतिहिंसा का बहशी बयार
और साम्प्रदायिकता का जहर
देश को खोखला बना डाला
और तुम
बुत बने
किसी चौराहे
या शहर के गोलम्बर पर
खड़े-खड़े
सत्रेण नेत्रों से देख रहे होते
अत्याचार, व्यभिचार।
एकता को
अनेकता की आँधीने
खंडित, कर दिया
और देश दो भागों में बँट गया।
कर विधान भंग वे
पद की लोलुपता में
नित्य नये गठबंधन का
हठजोड़ करते हैं
हो चुनाव साल में दो-दो बार
ऐसा शोर करते हैं
आतंक की बारुदी सुरंग में
देशवाशी झोंक दिये जाते हैं।
......................
मंडल विचार से प्रकाशित।
आजादी के बर्षों बाद
आजादी के बर्षों बाद,हमने क्या पाया क्या खोया?
लुट गयी जनता जनार्दन, शहीदों का सपना टूट गया।
देख दुर्दशा रोती रह गई भारत माता, अपने ही वतन में,
कवल आजादी देशभक्त इंशान, हैवान बन गया।
दिए खुत्वे हिन्दू मंदिरों में व मुसलमां मस्जिदों में,
हुई मसमंद बटवारे की होड़ में, देश खंडित हो गया।
शहीदों ने देखे थे स्वप्न फांसी के फंदों में,
नेक बन एक रहेंगे वो सब फना हो गया।
नेता, अफसर, प्रशासन, अपराधी की मिली भगत में,
आम वाम की सुख शांति, दफन हो गया।
सामाजिक न्याय को बांध जातीय बन्धन में,
गरीबों की जाति की जाति गरीबी बन गया।
मातम का आलम छा गया खेत और खलिहान में,
पनप रहा पूंजीपति, मजदूर-किसान कंगाल हो गया।
वतन की आबरु जल रहा वोट तंत्र की भट्टी में,
राष्ट्रवाद के राख पर प्रान्तीयता का पादप उग आया।
बनी कई पार्टियों की सरकार अपने ही देश में,
आपसी खिंचातानी में लोकतंत्र लंगड़ा बन गया।
चाह थी सुकुन के गुल खिलेंगे इस चमन में,
उग आया भाषा धर्म का शूल बांगवां बिखर गया।
(रचनाकालः 15 अगस्त 2013, रात्रि 1 बजे)
जन तरंग से प्रकाशित।
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